श्री हरदीप एस पुरी 2020 की शुरुआत से, दुनिया भर की सरकारें कोविड-19 महामारी की चपेट में हैं और एक ऐसी उभरती हुई विश्व व्यवस्था के साथ तालमेल बनाने के लिए संघर्ष कर रही हैं, जिसका निर्माण उनके द्वारा नहीं किया गया है।
भारत सबसे अधिक सहनशील देशों में से एक के रूप में उभरा है– यह एक वास्तविकता है, जो आईएमएफ के नवीनतम विकास अनुमानों में परिलक्षित होती है, जिसके अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था, वर्ष 2022 के दौरान 3.6 प्रतिशत की वैश्विक दर की तुलना में, 2022-23 में 8.2 प्रतिशत की विकास दर के साथ दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था होगी।
मोदी सरकार की दूरदर्शी पहलों की सहायता से, भारत महामारी से पैदा हुई सामाजिक-आर्थिक कठिनाइयों को अवसरों में बदलने में सक्षम हुआ। अभूतपूर्व 20 लाख करोड़ रुपये के ‘आत्मनिर्भर भारत पैकेज’ जैसे नीतिगत निर्णय ने यह सुनिश्चित किया है कि राष्ट्र एक स्थायी और समावेशी आर्थिक सुधार की ओर आगे बढ़ रहा है। भारत सरकार 80 करोड़ देशवासियों को मुफ्त राशन दे रही है; टीकाकरण के तहत वैक्सीन की 188 करोड़ खुराकें दी जा चुकी हैं (लेख लिखे जाने तक) और अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों को फिर से पटरी पर लाने के लिए सरकार राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन (एनआईपी) के तहत 111 लाख करोड़ रुपये का निवेश करने के लिए प्रतिबद्ध है। राजस्व में कमी और राज्य सरकारों को प्रदान की जाने वाली महत्वपूर्ण आर्थिक सहायता के बावजूद ऐसा किया गया और यह मोदी सरकार की प्राथमिकताओं से जुड़ी सभी बातों को स्पष्ट कर देता है।
महामारी के दौरान कच्चे तेल की कीमतें कम हुई थीं। यूक्रेन में सैन्य कार्रवाइयों की अस्थिरता के कारण तेल की कीमत में 500 प्रतिशत तक की वृद्धि होने के बावजूद राज्य सरकारों को प्रदान की जाने वाली वित्तीय सहायता का उच्च स्तर जारी रहा। यह वित्तीय सहायता सरकार द्वारा जिम्मेदार शासन और सहकारी संघवाद की लोकनीति के अनुपालन को दर्शाती है। इन कारकों से भारत पर बोझ काफी बढ़ गया, क्योंकि देश अपनी पेट्रोलियम आवश्यकताओं का लगभग 85 प्रतिशत आयात करता है।
विदेशी निर्भरता को दूर करने के लिए, भारत अपनी अक्षय ऊर्जा क्षमताओं में तेजी से वृद्धि कर रहा है। 6 करोड़ से अधिक देशवासी प्रतिदिन खुदरा दुकानों पर पेट्रोलियम उत्पाद खरीदते हैं। देश की आर्थिक वृद्धि की गति बढ़ रही है। इसके साथ ही खपत में भी वृद्धि हो रही है। परिणामस्वरूप, मध्य-अवधि के सन्दर्भ में ऊर्जा की प्रति व्यक्ति मांग और भी अधिक होगी और यह तब तक जारी रहेगी, जब तक कि भारत एक हरित अर्थव्यवस्था में परिवर्तित नहीं हो जाता। इस पृष्ठभूमि में, यह विचार करने की आवश्यकता है कि क्या शासी निकाय उस दिशा में प्रयास कर रहे हैं, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि भारतीय उपभोक्ता पर बोझ कम से कम पड़े।
मोदी सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि उसके कार्यकाल के दौरान पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि न्यूनतम हो। अप्रैल 2021 और अप्रैल 2022 के बीच, भारत में पेट्रोल की कीमतों में 16 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो संयुक्त राज्य अमेरिका (50.6 प्रतिशत), कनाडा (50.7 प्रतिशत), जर्मनी (50 प्रतिशत), यूके (58.9 प्रतिशत) और फ्रांस (33 प्रतिशत) की तुलना में सबसे कम थी। डीजल के लिए भी मूल्य वृद्धि में समान अंतर देखा जा सकता है; भारत में सभी प्रमुख देशों की तुलना में सबसे कम वृद्धि हुई है।
घरेलू मूल्य वृद्धि के ऐतिहासिक विश्लेषण से पता चलता है कि 2014-2022 के दौरान पेट्रोल की कीमत में 36 प्रतिशत की वृद्धि (77 रुपये प्रति लीटर से 105 रुपये प्रति लीटर) पिछले 42 वर्षों के दौरान तुलनात्मक अवधियों में सबसे कम है। पेट्रोल की कीमत में 2007-14 के दौरान 60 प्रतिशत (48 रुपये से 77 रुपये); 2000-2007 के दौरान 70 प्रतिशत (28 रुपये से 48 रुपये); 1993-2000 के दौरान 55 प्रतिशत (18 रुपये से 28 रुपये); 1986-1993 के दौरान 125 प्रतिशत (8 रुपये से 18 रुपये); 1979-1986 के दौरान 122 प्रतिशत (3.6 रुपये से 8 रुपये) और 1973-79 के दौरान 140 प्रतिशत (1.25 रुपये से 3 रुपये) की वृद्धि दर्ज की गयी थी।
यह भी याद रखना महत्वपूर्ण है कि पेट्रोल की कीमतों को 2010 में और डीजल की कीमतों को 2014 में नियंत्रण मुक्त कर दिया गया था। इसका अर्थ है, कीमतें बाजार द्वारा निर्धारित की जाती हैं। महामारी के कारण राजस्व घाटे के बावजूद, मोदी सरकार ने नवंबर 2021 में पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क में 5 रुपये प्रति लीटर और डीजल पर 10 रुपये प्रति लीटर की कमी की।
अधिकांश राज्य सरकारों ने मूल्य वर्धित कर (वैट) में कटौती कर कीमत में कमी की, जबकि महाराष्ट्र, तमिलनाडु और झारखंड जैसे कांग्रेस-सहयोगी राज्यों ने अत्यधिक उत्पाद शुल्क को जारी रखा। यह जानना दिलचस्प है कि विपक्ष, जो मूल्य वृद्धि का विरोध कर रहा है, पूरे भारत में ईंधन पर वैट की उच्चतम दरों को जारी रखने का विकल्प अपनाये हुए है। नीचे दिए गए आंकड़े इस असमानता को रेखांकित और स्पष्ट करते हैं:
महाराष्ट्र 26 प्रतिशत + 10.12 रुपये प्रति लीटर
राजस्थान 31 प्रतिशत + 1.5 रुपये प्रति लीटर
केरल 30 प्रतिशत + 1 रुपये प्रति लीटर
आंध्र प्रदेश 31 प्रतिशत + 5 रुपये प्रति लीटर
तेलंगाना 35 प्रतिशत
पश्चिम बंगाल 25 प्रतिशत + 13 रुपये प्रति लीटर
प्रधानमंत्री ने हाल ही में मुख्यमंत्रियों के साथ एक बैठक में जानकारी देते हुए कहा कि कुछ बीजेपी शासित राज्यों की तुलना में कई विपक्ष शासित राज्य, पेट्रोल पर राज्य द्वारा लगाए गए टैक्स के माध्यम से दोगुना राजस्व प्राप्त करते हैं।
एविएशन टर्बाइन फ्यूल (एटीएफ) जैसे अन्य महत्वपूर्ण पेट्रोलियम उत्पाद पर महाराष्ट्र और दिल्ली द्वारा 25 प्रतिशत तक वैट लगाना जारी है, जबकि बीजेपी शासित गुजरात के अहमदाबाद में, वैट सिर्फ 5 प्रतिशत है। इसके परिणामस्वरूप हवाई यात्रियों पर असुविधाजनक बोझ पड़ता है। बढ़ी कीमतों का लगभग पूरा बोझ यात्रियों पर डाल दिया जाता है; क्योंकि एटीएफ लागत, एयरलाइन परिचालन लागत के लगभग 40 प्रतिशत तक होती है।
विडंबना यह है कि इनमें से कई राज्यों ने शराब और स्पिरिट पर अपने टैक्स कम करने में कोई देरी नहीं की। नवंबर 2021 में, महाराष्ट्र सरकार ने आयातित शराब पर उत्पाद शुल्क को 300 प्रतिशत से घटाकर 150 प्रतिशत कर दिया। आंध्र प्रदेश में शराब पर वैट 130 प्रतिशत और 190 प्रतिशत के बीच लगाया जा रहा था, जिसे राज्य सरकार ने उसी महीने कम करके 35 प्रतिशत से 60 प्रतिशत के बीच निर्धारित कर दिया। इससे पहले, अप्रैल 2021 में, राजस्थान सरकार ने बीयर पर अतिरिक्त उत्पाद शुल्क को 34 प्रतिशत से कम करके 31 प्रतिशत कर दिया।
विपक्ष को यह याद रखना चाहिए कि यूपीए सरकार के शासनकाल में 2005-12 के बीच 1.44 लाख करोड़ रुपये मूल्य के दीर्घकालिक तेल बॉन्ड जारी किए गए थे। भारत सरकार पर अब यूपीए-युग के इन तेल बॉन्डों का 3.2 लाख करोड़ रुपये का बोझ है। यूपीए शासन के दौरान लाइसेंस रकबे को रोक दिया गया था, जिससे तेल ईएंडपी का परिचालन बंद हो गया था। वर्षों की अपनी बड़ी विफलताओं, जिसने भारत की ऊर्जा सुरक्षा को नुकसान पहुंचाया है, के बाद मूल्य वृद्धि के बारे में विपक्ष द्वारा शोर-शराबा सर्वथा अनुचित है। इससे भी अधिक दुःखद बात यह है कि भारतीय मीडिया, जिसे विपक्ष के झूठ को उजागर करना चाहिए था, इस झूठे और तथ्यहीन नैरेटिव को समर्थन देकर आगे बढ़ा रहा है।
राष्ट्र-निर्माण के सामूहिक मिशन में पारस्परिकता की अपेक्षा की जाती है। भारत सरकार ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह के उपायों के साथ राज्य सरकारों का समर्थन किया है; जिसमें वित्त आयोग के अनुदान के तहत कर राजस्व का 42 प्रतिशत हिस्सा, शक्ति हस्तांतरण के बाद राजस्व घाटा के लिए अधिक अनुदान और जीएसटी संग्रह का बड़ा हिस्सा शामिल हैं। बजट के तहत राज्य सरकारों को ब्याज मुक्त ऋण के रूप में 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक की धनराशि निर्धारित की गयी है। यह ऋण सुविधा राज्य विकास ऋण (एसडीएल) के माध्यम से राज्य सरकार के उधार को कम करेगी। इसके अलावा, अर्थोपाय अग्रिम राशि (डब्ल्यूएमए) और विशेष आहरण सुविधा (एसडीएफ) के तहत राज्य सरकार न्यूनतम दरों पर ऋण प्राप्त कर सकते हैं। इस मुद्दे से संबंधित, एक तथ्य यह है कि पिछले आठ वर्षों में ईंधन पर टैक्स के रूप में राज्य सरकारों ने लगभग 15.16 लाख करोड़ रुपये एकत्र किए हैं।
यह आश्चर्यजनक है कि कुछ राज्य सरकारें उपभोक्ताओं को राहत देने की जिम्मेदारी से पीछे हट रहीं हैं। एक ओर, कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ईंधन की कीमतों पर झूठी बातें फैला रहा है और दूसरी ओर वे पेट्रोल व डीजल पर उत्पाद शुल्क को कम करने से इनकार कर रहे हैं, जो उनके राज्यों में उपभोक्ताओं को अधिक राहत प्रदान करने में योगदान देगा। विपक्ष का यह रवैया दोहरे मापदंड और गुमराह करने वाला है।
सरकार तेल और गैस क्षेत्र की चुनौतियों के प्रति सचेत है और घरेलू क्षमताओं के निर्माण के लिए सोच-समझकर निर्णय ले रही है। हमने इस विषय पर एक समग्र दृष्टिकोण अपनाया है, देशवासियों के सामने विज़न की स्पष्टता तथा कार्य में पारदर्शिता रखी गयी है एवं सभी के कल्याण का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। देश के नागरिकों द्वारा चुनावी जनादेश लगातार हमारे पक्ष में दिया जा रहा है, जो हमारे कार्यों में उनके विश्वास को परिलक्षित कर
*लेखक भारत सरकार के पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस और आवासन एवं शहरी कार्य मंत्री हैं।*
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