*प्रो. श्रीनिवास वरखेड़ी, कुलपति, केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (vc@csu.co.in)*

भारत के आत्म-ज्ञान को समझने के लिए, भारतीय ज्ञान की खोज करना ही एकमात्र कुंजी है। भारतीय शिक्षा में एनईपी-2020 की शुरुआत से, आईकेएस, यानी भारतीय ज्ञान प्रणाली, चर्चा का मुख्य विषय रही है। पिछली दो शताब्दियों से, पश्चिमी धारणा हमारी शिक्षा को प्रभावित करने वाली प्रमुख कारक रही है। भारतीय मूल की ज्ञान पद्धति को मुख्यधारा की शिक्षा में या तो अस्वीकार कर दिया जाता है या उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। विश्व के बारे में भारतीय दृष्टि समाज से पूरी तरह गायब हो चुकी है। ‘भरपूर साधनों’ के साथ ‘जीवन यापन’ वर्तमान शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य बन गया है; जबकि भारतीय शिक्षा का लक्ष्य “सार्थक जीवन” से जुड़ा है। जब तक भारतीय ज्ञान प्रणाली का राष्ट्र की शिक्षा में पूर्ण एकीकरण नहीं हो जाता, तब तक यह दिशा-परिवर्तन एक चुनौतीपूर्ण कार्य बना रहेगा।

आईकेएस क्यों?

कौटिल्य के अनुसार, शिक्षा के उद्देश्य; स्नातकों में विशेषताओं के रूप में तीन परिणामों पर आधारित होंगे: विद्या- नए ज्ञान का सृजन, विवेक – सही उद्देश्य के लिए सही समय और सही स्थान पर सही ज्ञान का उपयोग करने का विवेक और विचक्षणता- वास्तविक जीवन में ज्ञान का उचित परिणाम प्राप्त करने के लिए कौशल। ये परिणाम तभी संभव हैं, जब शिक्षा प्रणाली ज्ञान और कौशल के एकीकरण के साथ उचित रूप से संतुलित हो। आज की शिक्षा में, ‘जानकारी प्राप्त करना’, यानी “कैसे जानें” का स्थान “क्या जानना है” पर आधारित ज्ञान सामग्री ने ले लिया है। संपूर्ण भारतीय ज्ञान परंपरा ने हमेशा ‘क्या’ के बजाय ‘कैसे’ पर ध्यान केंद्रित किया है। दूसरी बात यह है कि नई तकनीकों के आगमन ने मानवता को एक बड़ी मुसीबत में डाल दिया है। मानव अस्तित्व को गंभीर चुनौती दी गई है। प्राकृतिक मानव कौशल सवालों के घेरे में हैं। इस कठिन परिस्थिति से निपटने के लिए, नयी शिक्षा प्रणाली में कौशल के नए साधनों को कुशलता से पेश किया जाना चाहिए। न केवल प्रौद्योगिकियों का उपयोग करने के लिए, बल्कि जीवन में ज्ञान का उपयोग करने के लिए भी जीवन कौशल बहुत महत्वपूर्ण हैं। शिक्षा में अनुपातहीन कौशल के प्रयोग ने ज्ञान-निर्माण की प्रक्रिया को नुकसान पहुंचाया है। बिना अभ्यास के मात्र ज्ञान के उपयोग ने इसे ख़त्म कर दिया है। संतुलित करने के इस कार्य में प्राचीन भारतीय ज्ञान बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। जीवन के लिए भारतीय शिक्षा में ऐसा संतुलन आईकेएस के एकीकरण द्वारा लाया जाता है।

आईकेएस क्या है?

आईकेएस भारतीय ज्ञान की एक सामूहिक श्रृंखला है, जिसे ‘पता लगाने’ के व्यवस्थित तरीकों से प्रदर्शित किया जाता है। ज्ञान की प्राचीनतम रचनाओं यानी वैदिक साहित्य से लेकर देश की मूल और आदिवासी लोककथाओं तक, भारतीय ज्ञान एक स्पेक्ट्रम के रूप में फैला हुआ है। ज्ञान का विशाल भंडार न केवल संस्कृत, पाली और प्राकृत में, बल्कि सभी मूल भारतीय भाषाओं (आई एल) में भी उपलब्ध है। पिछले कई दशकों से इन पर कोई शोध नहीं किया गया है।

भारतीय ज्ञान के संरचना आधारित वर्गीकरण में आधारभूत ज्ञान, विज्ञान, इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी व मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान शामिल हैं। आईकेएस सहस्राब्दियों से विकसित हुआ है। इसके पास कई शाखाओं की एक विस्तृत श्रृंखला है, जैसे खगोल विज्ञान, आयुर्वेद और योग (स्वास्थ्य और कल्याण), गणित और गणना (कंप्यूटिंग), भाषा एवं भाषा विज्ञान, धातु विज्ञान, रस-शास्त्र, लोक प्रशासन, युद्ध प्रौद्योगिकी, प्रबंधन विज्ञान तथा अन्य।

विभिन्न क्षेत्रों में आईकेएस के योगदान में शामिल हैं– ग्रहों की चाल, सौर-केंद्रित दुनिया, पृथ्वी का आकार और व्यास; पौधों और जड़ी बूटियों की प्रकृति, शल्य चिकित्सा प्रक्रियाओं के कौशल; शून्य की खोज, अंकों की दशमलव प्रणाली, और पाई की गणना के लिए निकटतम एल्गोरिदम; पाणिनि का सार्वभौमिक व्याकरण; स्टील बनाने की विधि, सुशासन और कराधान आदि।

अठारह विद्या स्थान – ज्ञान-प्राप्ति के विद्यालय, प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली के अभिन्न अंग थे। नालंदा, तक्षशिला व शिक्षा के अन्य केंद्रों में शिक्षण कार्य होता था। कला और वास्तुकला, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, शिल्प और इंजीनियरिंग, दर्शन व प्रथाएं आदि पूरी दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा का स्रोत रही, जिसने न केवल शिक्षार्थियों को ज्ञान-प्राप्ति के लिए बल्कि आक्रमणकारियों को भी भारत को बर्बाद करने के लिए आकर्षित किया। ज्ञान हमारे देश की शक्ति और सम्पत्ति थी। आज इस ज्ञान-आधार की ज्ञान संबंधी कूटनीति के लिए बहुत जरूरत है, जो भविष्य में अंतरराष्ट्रीय संबंधों का निर्धारण करेगी। यही किसी भी देश को ताकत देता है। भारत के पास ज्ञान का ऐसा भण्डार है, जिसने सदियों से भारतीय सभ्यता को समृद्ध किया है।

आईकेएस को मुख्यधारा की शिक्षा का हिस्सा कैसे बनाया जाए?

आईकेएस, ज्ञान का एक विशाल और अविभाजित स्रोत है, जिस पर कई दशकों से कोई ध्यान नहीं दिया गया है। इस कारण यह सामाजिक स्मृति से अलग हो गया है। यद्यपि आईकेएस के कुछ भागों को संस्कृत और अन्य परंपराओं में शिक्षण व ज्ञान-प्राप्ति में जारी रखा गया था, परन्तु इस तरह के अलगाव ने इसे पहुंच से बाहर कर दिया। शिक्षा में आईकेएस का सिर्फ पुनरुद्धार या सुदृढीकरण; ज्ञान-प्राप्ति का एक ऐसा नया मंच तैयार करेगा, जो संरक्षण से ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो सकता है। इसलिए, आईकेएस सामग्री को समकालीन ज्ञान में एक सामंजस्यपूर्ण तरीके से एकीकृत करना वांछित है। इस तरह के एकीकरण के लिए बहुत श्रम और स्पष्ट नीति की आवश्यकता होती है।

कौटिल्य द्वारा ज्ञान-प्राप्ति का वर्गीकरण यह स्पष्ट करता है कि प्रत्येक समकालीन ज्ञान पद्धति का प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा से संबंध है।

1. त्रयी- कठोर और मृदु विज्ञान सहित मौलिक विज्ञानों की तीन शाखाएं विज्ञान शिक्षण विद्यालय- विज्ञान-विद्या का गठन करती हैं।

2. वर्ता और कुछ नहीं बल्कि वाणिज्य है, जिसमें व्यापार और अन्य माध्यमों से धन का उत्पादन और वितरण शामिल है।

3. दंड नीति- राजनीति, समाज, राज्य सुरक्षा आदि में अध्ययन, मानव या सामाजिक विज्ञान शाखा के भाग हैं।

4. अन्विक्षिकी – ज्ञान-प्राप्ति की सभी शाखाओं के विज्ञान में गणित, तर्कशास्त्र, भाषा, कला आदि शामिल हैं। यह सभी के लिए साझा है। सीखने की विभिन्न शाखाओं के सभी शिक्षार्थियों को इन प्राथमिक कार्यक्रमों से अवगत कराया जाना चाहिए। इस मॉडल में, नई शिक्षा प्रणाली को आईकेएस की विभिन्न शाखाओं से जोड़ा जाना चाहिए।

सरल शब्दों में आईकेएस हमें जानकारी प्राप्त करना सिखाता है? किस तरह से? किस हद तक? मौलिक सूत्र हमारी चिंतन प्रक्रिया का मार्गदर्शन और पुनर्निर्देशन करेंगे। आईकेएस विश्व के लिए एक नया दृष्टिकोण तैयार करता है, जो “वसुधैव कुटुम्बकम” (संपूर्ण पृथ्वी एक परिवार है) और “सर्वे भवन्तु सुखिनः” (सभी सुखी हों) जैसे स्वयंसिद्ध विश्वास में निहित हैं।

एकीकरण प्रक्रिया में आईकेएस का मूल परिचय, इसकी प्रकृति और संरचना, दायरा और इतिहास, आधुनिक पाठ्यपुस्तकों में मौलिक आईकेएस अवधारणाओं का सम्मिलन, उपलब्ध आईकेएस साहित्य के आधार पर भारतीय विचार प्रारूप विकसित करना तथा विभिन्न समकालीन समस्याओं को सुलझाने के तरीकों में उनका अनुप्रयोग करना आदि शामिल हैं।

दूसरे शब्दों में, केवल संरक्षण के उद्देश्य से आईकेएस को पृथक रूप में नहीं पढ़ाया जाना चाहिए। इसकी बजाय, इसे ‘अंतरिक्ष-विज्ञान’, ‘स्वस्थ भारत’, ‘आत्म-निर्भार-भारत’ जैसे देश के बड़े कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। मिशन-मोड में आईकेएस का एकीकरण इस उद्देश्य को पूरा करेगा। “संरक्षण से उपयोग की ओर” का यह परिवर्तन, भारत को ज्ञान के उभरते केंद्र के रूप में स्थापित करने के हमारे लक्ष्य को पूरा करेगा।

आईएल: शिक्षा में भारतीय भाषाएं

प्राचीन संस्कृत कवि, दंडी, भारतीय चिंतन परंपरा में भाषा के महत्व को दर्शाते हुए कहते हैं कि भाषा जीवन को प्रकाश देती है। अगर ‘भाषा’ न होती तो पूरी दुनिया में अंधेरा छाया रहता। विरासत में मिले शब्दों के प्रकाश की चमक ब्रह्मांड को प्रकाशित करती है।

भाषा मानव चिंतन प्रक्रिया का आधार होती है। भाषा के बिना “विचार” असंभव है। इसलिए, महान दार्शनिक, भर्तृहरि कहते हैं कि शब्द के बिना कोई भी ज्ञान अस्तित्व में नहीं रह सकता है। सभी ज्ञान, शब्द- भाषा से जुड़े हुए हैं।

मनुष्य को उचित तरीके से चिंतन करने व सोचने के लिए भाषा की अच्छी समझ की आवश्यकता होती है। इसलिए, भाषा शिक्षा को शिक्षा प्रणाली का अभिन्न अंग माना गया है। आईकेएस या आईकेएस आधारित शिक्षा के संदर्भ में, भारतीय भाषाएं बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। बुनियादी श्रेणियों के ज्ञान के साथ आईकेएस को समझा जा सकता है। किसी भी भारतीय ज्ञान प्रणाली की ऐसी बुनियादी श्रेणियां भारतीय भाषा के शब्दों के माध्यम से व्यक्त की जाती हैं। इन विचारों का अंग्रेजी में अनुवाद गलत धारणा को जन्म देगा, जो विनाशकारी भी हो सकता है। भारतीय भाषा शिक्षा को रोक देने से आईकेएस शिक्षा कमजोर हो जाएगी। इसलिए, आईकेएस और आईएल शिक्षा के एक विवेकपूर्ण संतुलन को भारतीय शिक्षा का हिस्सा बनाया जाएगा, जो गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान को प्रोत्साहित करे और जिससे सामंजस्यपूर्ण आर्थिक विकास हो सके।

यह एकीकरण एनईपी-2020 के मुख्य उद्देश्य को प्राप्त करने में मदद करेगा, ताकि एक समग्र शिक्षा व्यवस्था विकसित हो सके। इसके माध्यम से भारत एक बार फिर विश्वगुरु की स्थिति को प्राप्त कर सकता है।

नान्यं पंथ विद्यते अयनाय (मुक्ति का कोई अन्य रास्ता मौजूद नहीं है)

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