सोमवार, 15 नवंबर को कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी है, इसे देवउठनी एकादशी कहते हैं। इस दिन भगवान विष्णु के व्रत करने के साथ ही तुलसी और शालिग्राम जी की विशेष पूजा जरूर करें। इस एकादशी पर तुलसी और शालिग्राम जी का विवाह कराने की परंपरा है। उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं. मनीष शर्मा के अनुसार इस परंपरा के संबंध में तुलसी, शंखचूड़, शिव जी और भगवान विष्णु से जुड़ी एक कथा प्रचलित है।

शिवपुराण में बताई गई कथा के मुताबिक असुरराज शंखचूड़ का विवाह तुलसी से हुआ था। शंखचूड़ के आतंक से देवता भी परेशान थे। तुलसी का पतिव्रत की वजह से सभी देवता मिलकर भी शंखचूड़ का वध नहीं कर पा रहे थे। सभी देवता और ऋषि भगवान शिव के पास पहुंचे। शिव जी की मदद के लिए भगवान विष्णु ने छल से तुलसी का पतिव्रत भंग कर दिया और शिव जी ने शंखचूड़ का वध कर दिया।

जब तुलसी को मालूम हुआ कि भगवान विष्णु ने उसके साथ छल किया है तो उसने भगवान विष्णु को पत्थर बन जाने का शाप दे दिया। विष्णु जी ने तुलसी का शाप स्वीकार किया और कहा, ‘अब से गंडकी नदी और तुलसी के पौधे के रूप में तुम्हारी पूजा होगी। मेरी पूजा में भी तुलसी रखना अनिवार्य होगा।’

नेपाल में बहने वाली गंडकी नदी भी तुलसी का ही एक स्वरूप मानी गई है। इस नदी एक विशेष प्रकार के काले पत्थर मिलते हैं, जिन पर चक्र, गदा आदि के निशान बने होते हैं। इन पत्थरों को भगवान विष्णु का स्वरूप माना जाता है। इन पत्थरों को ही शालिग्राम के रूप में पूजा जाता है।

शिवपुराण में भगवान विष्णु ने खुद ही गंडकी नदी में अपना वास बताया है, विष्णु जी कहते हैं, ‘गंडकी नदी में रहने वाले करोड़ों कीड़े अपने तीखे दांतों से काट-काटकर इन पत्थरों पर मेरे चक्र का चिह्न बनाएंगे और इसी कारण ये पत्थर मेरा स्वरूप मान कर पूजे जाएंगे।’

विष्णु जी और तुलसी से जुड़ी एक और मान्यता प्रचलित है। इस मान्यता के अनुसार प्राचीन समय में तुलसी ने भगवान विष्णु को पति रूप में पाने के लिए कई सालों तक तपस्या की थी, इसके फलस्वरूप भगवान विष्णु ने उसे विवाह करने का वरदान दिया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी पर विवाह किया था। इसी वरदान की वजह से हर साल देवप्रबोधिनी एकादशी पर शालिग्राम और तुलसी का विवाह कराने की परंपरा है।

 

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