गीता में कहा गया है- उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मा नमवसादयेत्।

आत्मैव हृयात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:

-अध्याय 6 श्लोक 5

मनुष्य आत्मा से आत्मा का उद्धार  करे। आत्मा को नीचे न गिरावे, क्योंकि आत्मा ही आत्मा का बंधु है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है।

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।

अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥

-अध्याय 6 श्लोक 6

निस्संदेह उस आत्मा का आत्मा बंधु है, जिसने आत्मा से आत्मा को जीता है किंतु अनात्मा (न जीते हुए आत्मा) का आत्मा निस्संदेह शत्रुवत्ï शत्रुता करता है।

भगवान ने मनुष्य को उन सब विशेषताओं से परिपूर्ण बनाकर इस पृथ्वी पर भेजा है, जिनके आधार पर वह अपना उद्धार-उत्थान, बड़ी सरलता से कर सकता है। उसके शरीर की रचना अद्ïभुत है, उसके मन की रचना अलौलिक है, उसकी अंतरात्मा ऐसी शक्ति और सामथ्र्य से परिपूर्ण है, जिसके आधार पर अपने जीवन में स्वर्ग का और अपने समाज में शांति का अवतरण कर सकता है पर यदि हम अपनी सामथ्र्य और शक्ति को भूले ही रहें, उसका उपयोग ही न करें तो गया-गुजरा, दु:ख-अभावों में ग्रस्त, दीन-हीन जीवन बिताना ही पड़ेगा।

दूसरों को हम अनेक शिक्षाएं देना चाहते हैं, उनके मार्गदर्शक बनना चाहते हैं, अन्य व्यक्तियों को अपना आज्ञानुवर्ती बनाना चाहते हैं पर कितने आश्चर्य की बात है कि हम अपने मन और इंद्रियों को अनुशासन में नहीं कर पाते। दूसरों को आज्ञानुवर्ती बनाकर जितना प्रयोजन हम सिद्ध कर सकते हैं, उससे अनेक गुना प्रयोजन सत्परिणाम हम अपने आपको वश में करके उठा सकते हैं। निम्न स्तर का जीवन जीने को आज हमें इसीलिए विवश होना पड़ता है कि हमारा आंतरिक स्तर अनेक दोष-दुर्गुणों से ग्रसित बना हुआ है। भीतर की दुर्बलताएं ही बाह्यï जीवन को दीन-दु:खी बनाए रखने के लिए विवश करती हैं। जो भीतर से छोटा है, ओछा है, उसे बाह्यï जीवन में दु:ख-दरिद्रों से, शोक-संतापों से, कुण्ठाओं और चिंताओं से भरा जीवन बिताने के लिए विवश होना पड़ेगा।

गीताकार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को और उसके माध्यम से मनुष्य मात्र को ये पे्ररणाएं दी हैं कि वह अपना उद्धार आप करे। अपने उत्कर्ष के लिए स्वयं कटिबद्ध हो। अपने उत्थान और पतन की जिम्मेदारियां स्वयं वहन करे। मनुष्य को यह विश्वास करना ही चाहिए कि यदि उसे ऊंचा उठना है तो उसमें उसका निज का पुरुषार्थ ही प्रधान कारण होगा। यदि वह गई-गुजरी स्थिति में पड़ा रहता है तो भी इसमें उसकी ही जिम्मेदारी है। दूसरों का सहयोग, असहयोग, सामयिक परिस्थितियों का अनुकूल-प्रतिकूल होना भी उत्थान-पतन में थोड़ा सहायक हो सकता है पर उनका प्रभाव स्वल्प ही होता है। शक्तियों का स्रोत तो अपने भीतर ही है। जब वह खुल पड़ता है तो बाहरी असहयोग या बाधाओं को उफनती नदी द्वारा कूड़ा-करकट बहा ले जाने की तरह मार्ग में से हटाकर दूर फैंक देता है। इसी प्रकार यदि आत्मबल बढ़ा हुआ हो तो साहस, धैर्य और लगन की कमी न रहे। सद्ïगुण समुचित मात्रा में विïद्यमान हों, तो वैसी परिस्थितियां सहज ही बनती चली जाती हैं, जिसमें आगे बढ़ सकना, ऊपर उठ सकना सरल बन जाए। ईश्वर मनुष्य की सहायता भी करता है पर करता तभी है, जब यह देख लेता है कि यह वस्तुत: इसका पात्र है। सहयोग करने वाले और आगे बढऩे में मदद करने वाले सज्जनों की भी इस दुनिया में कमी नहीं है पर वह मिलती तभी है, जब मनुष्य अपनी पात्रता को कसौटी पर कसकर खरा सिद्ध कर देता है। सहायता का उपयोग तभी है, जब मनुष्य उसका पात्र हो, अन्यथा कीचड़ में दूध डालने की तरह वह सहायता भी निष्फल चली जाती है। कुपात्र की सहायता से उसका कुछ लाभ तो होता नहीं, उलटे सांप को दूध पिलाने की तरह उसकी आलस्य, अहंकार आदि दुष्प्रवृत्तियां और बढ़ जाती हैं। इसी प्रकार जिसका व्यक्तित्व सहायता का पात्र न हो, उसे आमतौर से न लोगों की सहायता मिलती है, न ईश्वर की।

प्रगति के पथ पर बढ़ चलने की परिस्थितियां उपलब्ध हों, उसके लिए दूसरों से याचना की आवश्यकता नहीं। देवताओं से भी कुछ मांगना व्यर्थ है, क्योंकि वे भी सत्पात्र को ही सहायता करने के अपने नियम में बंधे हुए हैं। मर्यादाओं का उल्लंघन करना जिस तरह मनुष्य के लिए उचित नहीं है, उसी तरह देवता भी अपनी यही मर्यादाएं बनाए हुए हैं कि जिसने अपने व्यक्तित्व के परिष्कृत करने की, कठोर काम करने की तपश्चर्या की हो, केवल उसी पर अनुग्रह किया जाए और उसे ही किसी  तरह का वरदान दिया जाए। मांगने से पहले उस पात्र को तपस्या करनी पड़ती है, जिससे मिलने पर उस वस्तु को रखा जा सके। यदि पात्र नहीं है तो किसी के देने पर भी वह वस्तु ग्रहण न की जा सकेगी। गरम दूध कोई दे रहा हो तो लेने के लिए कोई पात्र तो चाहिए ही। ईश्वरीय या देवीय अनुकंपाएं भी गरम दूध की तरह हैं, उन्हें लेने से पहले आवश्यक पात्रता का संपादन करना ही चाहिए। यह प्राथमिक योग्यता जहां उपलब्ध हुई कि ईश्वरीय प्रेरणा एवं व्यवस्था के अनुसार दूसरों की सहायता भी मिलनी अनिवार्य है और वह अपना उद्धार करने को इच्छुक अभीष्टï परिस्थितियां सहज ही प्राप्त करते हुए तेजी से आगे बढ़ता जाता है। संसार का इतिहास इसी तथ्य की पग-पग पर साक्षी दे रहा है।

अपनी अवनति का, हीन स्थिति में पड़े रहने का दोष किसी दूसरे पर मढऩा उचित नहीं। ग्रहदशा का विपरीत होना, भाग्य की हीनता, दूसरों के असहयोग को अपनी प्रगति में बाधक मानना, अपने आपको धोखा देना, मिथ्या आत्मसंतोष करके झूठमूठ मन बहलाने के लिए भले ही कुछ काम का हो, वस्तुत: इन बातों में कोई तथ्य नहीं है। संसार में अगणित व्यक्ति ऐसे भी हैं, जो गई-गुजरी परिस्थितियों में उत्पन्न हुए, अभावों ने जिनका मार्ग अवरुद्ध कर रखा था पर अपने प्रबल पुरुषार्थ, मानवीय एवं उज्ज्वल व्यक्तित्व के आधार पर तेजी के साथ आगे बढ़ते चले गए और उन्नति के उस उच्च शिखर पर जा पहुंचे, जिसे देखकर उनके अकर्मण्य साथियों को आश्चर्यचकित रह जाना पड़ा।

भेड़ों के झुण्ड में पले हुए सिंह के भेड़ों की तरह बने रहने की कथा प्रसिद्ध है। उसी तरह हम भी आत्मविस्मृत हुए बैठे हैं। अपनी शक्तियों और संभावनाओं के संबंध में अनजान रहने के कारण हम गया-गुजरा जीवन निर्वाह करते हैं और यह मान बैठते हैं कि हमारे भाग्य में इतना ही लिखा है, हमारी योग्यता इन्हीं परिस्थितियों में रहने की है। इस मिथ्या अवसाद एवं संभ्रम को दूर करने की प्रेरणा गीताकार ने दी है और कहा है-हे अर्जुन! मनुष्य अपना उद्धार आप कर अपने आपको गिरने न दे। जिसने अपने को जीत लिया, सुधार लिया, उसका आपा ही उसका मित्र बनकर अगणित विभूतियों के उपहार प्रदान करता है और जिसने अपने आपको गिरा लिया, वह स्वयं ही अपना शत्रु है। उस शत्रु से इतनी अधिक हानि होने की संभावना रहती है, जितनी संसार के सारे शत्रु मिलकर भी मनुष्य का अहित नहीं कर सकते।

अपना उद्धार करना संसार का उद्धार करने का प्रथम चरण है। समाज या संसार कोई अलग वस्तु नहीं, व्यक्तियों का समूह ही समाज या संसार कहलाता है। यदि हम संसार का उद्धार या कल्याण करना चाहते हैं तो वह कार्य अपने आप से आरंभ करना चाहिए, क्योंकि अपना आप ही सबसे निकट है। अपने को सुधारना सबसे अधिक सरल एवं संभव हो सकता है। दूसरे लोग कहना मानें या न मानें, बताए हुए रास्ते पर चलें या न चलें, यह संदिग्ध है पर अपने ऊपर तो अपना नियंत्रण है ही। अपने को तो अपनी मर्जी के अनुसार बना  सकते हैं, इसलिए विश्व कल्याण का कार्य सबसे प्रथम आत्मकल्याण का कार्य हाथ में लेते हुए ही आरंभ करना चाहिए।

संसार का एक अंश हम भी हैं। अपना जितना ही सुधार हम कर लेते हैं, उतने ही अंशों में संसार सुधर जाता है। अपनी सेवा भी संसार की ही सेवा है। एक बुरा व्यक्ति अनेक तक अपनी बुराई का प्रभाव फैलाता है और लोगों के पाप-तापों एवं शोक-संतापों में अभिवृद्धि करता है। इसी प्रकार एक अच्छा व्यक्ति अपनी अच्छाई से स्वयं ही लाभान्वित नहीं होता, वरन्ï दूसरे अनेक लोगों की सुख-शांति बढ़ाने में सहायक होता है। सामाजिक होने के कारण मनुष्य स्वभावत: अपना प्रभाव दूसरों पर छोड़ता है, फिर जो जितना ही मनस्वी होगा, वह अपनी अच्छाई या बुराई का भला-बुरा प्रभाव भी उसी अनुपात से संसार में फैलाएगा। इस प्रकार मनुष्य अपना सुधार करने में लग जाए तो वह संसार का बहुत भारी सुधार कर सकता है। अपनी सच्ची सेवा विश्व-सेवा का ही एक अंग मानी जा सकती है। संकुचित भौतिक स्वार्थों की इसीलिए ऋषियों ने निंदा की है कि उनमें ग्रस्त होकर मनुष्य अपने धर्म-कत्र्तव्यों की उपेक्षा करने लगता है।

माना कि दूसरों की गलतियां और बुराइयां भी हमें परेशान करती हैं और अनेक प्रकार की बाधाएं खड़ी करके प्रगति का द्वार रोकती हैं।

संसार में बुरे लोग हैं और उनमें बुराइयां भी कम नहीं हैं, इस बात से कोई इंकार नहीं करता पर साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य है कि कोई वस्तु सजातीय एवं अनुकूल परिस्थितियों में ही बढ़ती एवं पनपती है। बुराई को अपना रूप प्रकट करने का अवसर तभी मिलेगा, जब वैसी बुराई अपने अंदर भी हो। अपना स्वभाव उत्कृष्टï हो तो बुरे लोगों को भी झक मारकर निरस्त होना पड़ता है।

क्रोधी मनुष्य को आक्रमण करने का अवसर उसी पर मिलता है, जो स्वयं भी क्रोधी हो। क्रोध से क्रोध बढ़ता है और उसकी क्रियाप्रतिक्रिया द्वंद्वयुद्ध का रूप धारण कर लेती है। यदि एक व्यक्ति नम्र, सहनशील, हंसमुख, क्षमाशील और दूरदर्शी हो तो क्रोधी स्वभाव का मनुष्य भी उसे उत्तेजित नहीं कर पाता। वह अपनी नम्रता और सज्जनता से उसे शांत कर शांत देता है और क्रोध का जो मूल कारण था, उसके समाधान का भी उपाय सोच लेता है। इसके विपरीत यदि दोनों ही क्रोधी हुए तो कोई बड़ा कारण न होते हुए भी केवल शब्दों की उच्छृंखलता लेकर परस्पर लड़ मरते हैं और मित्रता, शत्रुता में बदल जाती है।

दुराचारी की दाल वहीं गलती है, जहां सदाचार का पक्ष दुर्बल हो। ठग हमेशा लोभी पर हाथ साफ करते हैं। दरिद्रता, आलसी के घर आती है, बीमारियां, असंयमी पर हावी होती हैं, भय डरपोक को सताता है, अदूरदर्शी एवं जल्दबाज को चिंताएं घेरती हैं। यदि अपना व्यक्तित्व सच्चा, खरा और मजबूत हो तो इन बाहरी विकृतियों को उलटे पांव लौटना पड़ेगा। पत्थर पर तलवार का प्रहार क्या सफल होगा? ताली दोनों हाथों से बजती है। मक्खी गंदगी पर बैठती है। घाव होगा तो कीड़े भी पड़ेंगे।

यदि अपना पक्ष पहले से ही स्वच्छ रखा जाए तो सारे संसार के दोष मिलकर भी व्यक्ति का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। चंदन के पेड़ में लिपटे रहने वाले अनेक सर्प उसे विषैला नहीं बना सकते। दुष्टों की दुष्टïता सज्जनों को खरोंच भले ही पहुंचावे पर उन्हें परास्त नहीं कर सकती। इतिहास का पन्ना-पन्ना इस बात का साक्षी है कि सज्जनता और दुर्जनता के युद्ध में सज्जनता को नहीं, दुर्जनता को ही परास्त होना पड़ा है।

आहार और विहार के असंयम की कठोर समीक्षा करते हुए यदि अपना रहन-सहन सुव्यवस्थित करने पर ध्यान दिया जाए, जिह्वïा और कामेंद्रिय पर काबू रखा जाए, अनियमितता को हटाकर दिनचर्या को सुव्यवस्थित बनाया जाए, आलस्य को छोड़कर समय के एक क्षण को मनोयोगपूर्वक निर्धारित कार्यक्रम में संलग्न रखा जाए तो शरीर का बिगड़ा हुआ ढंग देखते-देखते कुछ ही दिनों में ठीक हो सकता है और बीमारी की कमजोरी के कारण जो आए दिन चिकित्सक के दरवाजे पर नाक रगडऩी पड़ती है, उससे सहज ही छुटकारा मिल सकता है। दवाई का खर्च, अस्वस्थता के कारण पीड़ा एवं परेशानी, काम का हर्ज, संबंधियों का तिरस्कार, कुरूपता, बुढ़ापा एवं अकाल मृत्यु की छाया। इन सब विपत्तियों का तीन चौथाई निवारण मनुष्य स्वयं करता है। यदि वह असंयम से छुटकारा पा सके तो अस्वस्थता भी उसका पीछा जरूर छोड़ देगी।

मानसिक दृष्टिï से अगणित व्यक्ति चिंता, भय, शोक, क्षोभ, आवेग, उत्तेजना, ईष्र्या, द्वेष, निराशा, आशंका आदि से ग्रस्त होकर उद्विग्न जीवन बिताते हुए नारकीय यंत्रणाएं सहते रहते हैं। इनके कारणों की तलाश करने पर वस्तुस्थिति बहुत ही सामान्य होती है। आत्महत्या तक कर बैठने वालों के संक्षोभ का कारण तलाश करने पर बात बहुत ही सामान्य-सी निकलती है।

कई बार तो इतनी छोटी होती है कि उसे उपेक्षा से गुजारा जा सकता था, कोई दूसरा उपाय उस क्षोभ से बच निकलने का आसानी से खोजा जा सकता था पर उतावली एवं आवेश में वे किंकत्र्तव्यविमूढ़ होकर अपनी विवेकशीलता खो बैठे और न करने लायक कर गुजरे। ऐसे उत्पाती, अधीर और आवेशग्रस्त मनुष्य साधारण घटनाओं को लेकर विक्षुब्ध बने फिरते हैं और अपने लिए तथा अपने से संबंधित लोगों के लिए अशांति की ज्वाला प्रज्ज्वलित करते रहते हैं। यदि इस स्थिति की भयानकता को मनुष्य समझे और अपने को धैर्यवान, गंभीर, विचारशील एवं हंस-खेलकर कठिनाइयों को काट देने की आदत बना ले तो निश्चय ही उसका मन सदा संतुलित और प्रसन्न बना रहे। मन को संतुलित करने के लिए किया हुआ प्रयत्न जीवन के सारे स्वरूप को ही बदल देता है। नरक को स्वर्ग में परिवर्तित करने की कुंजी मनुष्य के हाथ में है। सोचने का तरीका यदि बदल डाले, खिलाड़ी की भावना रखकर जिंदगी का खेल खेले, नाटक के पात्रों की तरह, अभिनय का आनंद लेते हुए दिन गुजारे, बुराई में से भलाई और निराशा में से आशा की किरणें खोजने का अभ्यास करे तो कोई कारण नहीं कि रोता रहने वाला मनुष्य हंसते-खिलते गुलाब के रूप में परिणित होकर न केवल अपनी ही मानसिक समस्या हल कर ले, वरन्ï पड़ोसियों और संबंधियों के लिए भी प्रसन्नता, आशा एवं प्रेरणा का केंद्र बन जाए।

पं. लीलापत शर्मा

 

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