सावन महीने की कृष्ण और शुक्लपक्ष की चतुर्थी पर गणेशजी की विशेष पूजा करने की जाती है। क्योंकि इस तिथि के स्वामी गणेशजी हैं। इनमें शुक्लपक्ष वाली चतुर्थी ज्यादा खास मानी गई है। इसे दूर्वा गणपति चौथ कहा जाता है। इस बार ये 12 अगस्त, बुधवार को है। इस दिन गणेशजी को दूर्वा (विशेष तरह की हरी घास) चढ़ाकर विशेष पूजा की जाती है। ऐसा करने से परिवार में समृद्धि बढ़ती है और मनोकामना भी पूरी होती है। इस व्रत का जिक्र स्कंद, शिव और गणेश पुराण में किया गया है।
गणेशजी को दूर्वा चढ़ाने की विधि
जीवन में सुख व समृद्धि की प्राप्ति के लिए श्रीगणेश को दूर्वा ज़रुर अर्पित की जानी चाहिए। दूर्वा एक खास तरह की घास है। जिसे किसी भी बगीचे में आसानी से उगाया जा सकता है। भगवान श्रीगणेश को चढ़ने वाली इस पवित्र घास को इकट्ठा कर के गांठ बनाकर गुड़ के साथ चढ़ाया जाना चाहिए। भगवान गणपति को हमेशा दूर्वा का जोड़ा ही चढ़ाया जाता है। इनमें 11 जोड़ा दूर्वा भगवान गणेश को चढ़ाने से कामकाज में आने वाली रुकावटें दूर होती हैं और मनोकामना की पूरी होती है।
दूर्वा गणपति व्रत की पूजा विधि
सुबह जल्दी उठकर नहाने के बाद गणेश जी की मूर्ति या तस्वीर के सामने बैठकर व्रत और पूजा का संकल्प लेना चाहिए। इसके बाद अपनी इच्छा अनुसार सोने, चांदी, तांबे, पीतल या मिट्टी से बनी भगवान श्रीगणेश की प्रतिमा स्थापित करें। फिर ऊं गं गणपतयै नम: मंत्र बोलते हुए जितनी पूजा सामग्री उपलब्ध हो उनसे भगवान श्रीगणेश की पूजा करें। गणेशजी की मूर्ति पर सिंदूर लगाएं। फिर 21 दूर्वा दल चढ़ाएं। गुड़ या बूंदी के 21 लड्डुओं का भोग भी लगाएं। इसके बाद आरती करें और फिर प्रसाद बांट दें।
गणपति को दूर्वा चढ़ाने का कारण
पौराणिक कथा के मुताबिक अनलासुर नाम के दैत्य से स्वर्ग और धरती पर त्राही-त्राही मची हुई थी। अनलासुर ऋषियों और आम लोगों को जिंदा निगल जाता था। दैत्य से परेशान होकर देवी-देवता और ऋषि-मुनि महादेव से प्रार्थना करने पहुंचे। शिवजी ने कहा कि अनलासुर को सिर्फ गणेश ही मार सकते हैं। फिर सभी ने गणेशजी से प्रार्थना की।
श्रीगणेश ने अनलासुर को निगला तो उनके पेट में जलन होने लगी। कई उपाय के बाद भी जलन शांत नहीं हो रही थी। तब कश्यप ऋषि ने दूर्वा की 21 गांठ बनाकर श्रीगणेश को दी। जब गणेशजी ने दूर्वा खाई तो उनके पेट की जलन शांत हो गई। तभी से श्रीगणेश को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा शुरू हुई।