श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों के तर्पण संस्कार के लिए भगवान विष्णु के पदचिह्नों पर बने मंदिर में लोग पूजा संस्कारों के लिए आते हैं। बिहार के गया में स्थित इस मंदिर को विष्णुपद मंदिर के नाम से जाना जाता है। पितृपक्ष के अवसर पर यहां श्रद्धालु अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए श्राद्ध संस्कार करना अत्यंत आवश्यक मानते हैं। इस मंदिर को धर्मशिला के नाम से भी जाना जाता है। ऐसी भी मान्यता है कि पितरों के तर्पण के पश्चात इस मंदिर में भगवान विष्णु के चरणों के दर्शन करने से समस्त दुखों का नाश होता है एवं पूर्वज पुण्यलोक को प्राप्त करते हैं। पवित्र फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित विष्णु मंदिर की कई विशेषताएं हैं।

18वीं शताब्दी में हुआ था जीर्णोद्धार

मंदिर के शीर्ष पर सोने का कलश, स्वर्ण ध्वजा,गर्भगृह में चांदी का छत्र चांदी का अष्टपहल है। सभी 50-50 किलो के हैं। अंदर विष्णु जी की चरण पादुका है। गर्भगृह का पूर्वी द्वार भी चांदी से बना है। भगवान विष्णु के चरण की लंबाई करीब 40 सेंटीमीटर है। जानकारों का कहना है कि 18 वीं शताब्दी में महारानी अहिल्याबाई ने इसका जीर्णोद्धार कराया था, लेकिन यहां विष्णु जी का चरण सतयुग काल से ही है।

सीताकुंड है दर्शनीय

मंदिर से थोड़ी दूर फल्गु नदी के पूर्वी तट पर स्थित सीताकुंड है। मान्यता है कि श्रीराम, माता सीता के साथ महाराज दशरथ का पिंडदान करने यहां आए थे, जहां सीता जी ने महाराज दशरथ को बालू फल्गु जल से पिंड अर्पित किया था और यहां बालू से बने पिंड दान का महत्व बढ़ा।

कसौटी पर संरचना

विष्णुपद मंदिर का निर्माण सोने को कसने वाली कसौटी पत्थर पर किया गया है। इस मंदिर की ऊंचाई करीब 100 फीट है। सभा मंडप में 44 पिलर हैं। 54 वेदियों में से 19 वेदियां विष्णुपद में ही हैं, जहां पर पितरों की मुक्ति के लिए पिंडदान होता है। यहां साल भर पिंडदान होता है।

पौराणिक मान्यता

मान्यता है कि यहां भगवान विष्णु का चरण चिह्न ऋषि मरीची की पत्नी माता धर्मवत्ता की शिला पर है। कहते हैं कि दैत्य गयासुर को स्थिर करने के लिए धर्मपुरी से माता धर्मवत्ता शिला को लाया गया था, जिसे गयासुर पर रख भगवान विष्णु ने उसे अपने पैरों से दबाया था। इसके बाद शिला पर भगवान के चरण चिह्न बने। विश्व में विष्णुपद ही एक ऐसा स्थान है, जहां भगवान विष्णु के चरण के साक्षात दर्शन किए जा सकते हैं।

कैसे होता है पदचिह्नों का शृंगार

इन विष्णु पदचिह्नों का शृंगार रक्त चंदन से किया जाता है। इस पर गदा, चक्र, शंख आदि अंकित किए जाते हैं। यह परंपरा भी काफी पुरानी बताई जाती है, जो कि मंदिर में अनेक वर्षों से की जारी है।

160 वर्ष पुरानी घड़ी

मंदिर परिसर में करीब 160 वर्ष पुरानी धूप घड़ी है। इसे विक्रम संवत 1911 में स्थापित किया गया था। जैसे-जैसे सूर्य पूर्व से पश्चिम की तरफ जाता है तो किसी वस्तु की छाया पश्चिम से पूर्व की तरफ चलती है, सूर्य लाइनों वाली सतह पर छाया डालती है, जिससे दिन में समय के घंटों का पता चलता है। 3 फिट की ऊंचाई पर गोलाकार आकार में एक पाया स्थापित कर ऊपरी हिस्से पर मेटल पर नबंर अंकित हैं इस घड़ी में।

 

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