भाद्रपद महीने के कृष्णपक्ष की द्वादशी को वत्स द्वादशी पर्व मनाया जाता है। ये श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के तीन दिन बाद आता है। इसमें गाय और उसके बछड़े की पूजा करने की परंपरा है। लोक परंपराओं के मुताबिक कुछ जगहों पर ये पर्व कार्तिक महीने में दीपावली से 2 दिन पहले भी मनाया जाता है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर हिस्सों में जन्माष्टमी पर्व के बाद ये व्रत किया जाता है। इस बार ये व्रत 3 सितंबर को किया जाएगा।
क्यों करते हैं ये व्रत
इस व्रत में परिवार की महिलाएं गाय और बछडे की पूजा करती हैं। इसके बाद अपने बच्चों को प्रसाद के रुप में सूखा नारियल देती हैं। ये व्रत खासतौर से माताओं और उनके बच्चों कि सुख-शान्ति से जुड़ा हुआ है। माना जाता है कि ये व्रत बच्चों की अच्छी सेहत और लंबी उम्र के लिए किया जाता है। अच्छी संतान पाने की इच्छा से भी ये व्रत किया जाता है।
भविष्य पुराण: गाय में देवी-देवताओं का वास
भविष्य पुराण के मुताबिक गाय को माता यानी लक्ष्मी का स्वरूप माना गया है। गौमाता के पृष्ठदेश यानी गाय के पिछले हिस्से में ब्रह्म का वास होता है। गले में विष्णु और मुख में रुद्र का निवास माना जाता है। गाय के शरीर के बीच के हिस्सों में सभी देवताओं और रोम छिद्रों में महर्षिगण रहते हैं। पूंछ में अनंत नाग, खूरों में सभी पूजनीय पर्वत, गौमूत्र में गंगा और अन्य पवित्र नदियों का अंश माना जाता है। गाय के गोबर में लक्ष्मीजी और नेत्रों में सूर्य-चन्द्र विराजित हैं।
कैसे किया जाता है
इस दिन सूरज उगने से पहले ही महिलाएं नहा लेती हैं। फिर दिनभर में किसी भी शुभ मुहूर्त में गाय और उसके बछड़े की पूजा करती हैं। साथ ही गाय को हरा चारा और रोटी सहित अन्य चीजें खिलाकर तृप्त किया जाता है। कई जगहों पर गाय और बछड़े को सजाया जाता है। अगर कहीं गाय और बछड़ा नहीं मिल पाए तो चांदी या मिट्टी से बने गाय-बछड़े की पूजा भी की जा सकती है। इस दिन गाय का दूध और उससे बनी चीजें नहीं खाई जाती है। घरों में खासतौर से बाजरे की रोटी और अंकुरित अनाज की सब्जी बनाई जाती है। इसकी जगह भैंस का दूध इस्तेमाल किया जाता है।