‘‘जहां बेटा-बेटी हो एक समान,
उस घर का सब करें सम्मान।’’
लड़की और लड़के में शारीरिक तौर पर बहुत-सी भिन्नताएं होती हैं। लड़की नाजुक, सुन्दर तथा भावुक होती है। लड़का मजबूत और ताकतवर होता है। ईश्वर ने दोनों को भिन्न इसलिए बनाया है कि वे एक-दूसरे के पूरक बनें। कुछ गुण पुरुष में हैं तो बहुत से गुण नारी में भी हैं। इनको एक-दूसरे के साथ मिल-जुल कर आगे बढऩा चाहिए। यही बात सबसे अधिक मां-बाप को समझनी चाहिए। आइए जानें कि कैसे होता है घरों में जाने-अनजाने में लड़कियों से भेदभाव और किस तरह सोच में बदलाव लाकर इस भेदभाव को खत्म किया जा सकता है।
– कई घरों में बेटियों के पश्चात् बेटे को बहुत से गर्भपात करवाने के बाद पाया जाता है। ऐसे घरों में मां-बाप का ज्यादा आकर्षण बेटे की तरफ रहता है और बेटियों के लिए उनकी सोच भावुकता से भरी नहीं रहती और बेटियां हीन भावना की शिकार हो जाती हैं। क्या जरूरत है बेटा पाने की चाह रखने की?अपनी बेटियों में वह सुख ढूंढें, आपका मन अथाह सुकून पाएगा। सिर्फ सोच का फर्क है। आजकल खानदान का नाम बेटी के नाम से भी उतना ही चलता है जितना बेटे के नाम से । उदाहरण के तौर पर किरण बेदी, प्रियंका चोपड़ा, सायना नेहवाल आदि के मां-बाप को बेटों के नाम की क्या जरूरत है और इसलिए आपको भी नहीं। हो सकता है, बेटा अपनी जॉब की वजह से आपके अंतिम समय तक आपके पास आ कर रह ही न पाए।
– कुछ मां-बाप बेटों को कॉन्वैंट या अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाते हैं और बेटी को सरकारी स्कूल में। इससे लड़कियां शुरू से ही मां-बाप की दबी हुई नफरत की शिकार हो जाती हैं। मां-बाप को अपने बच्चों में भेदभाव करना बन्द करना चाहिए। जैसे बेटा पैदा हुआ वैसे बेटी, फिर ममता में फर्क क्यों? इस बात को लेकर बड़ा होने पर आपका बेटा, बहू, जमाई, रिश्तेदार, समाज आदि आपको नफरत की नजरों से भी देख सकते हैं और आपके ऊपर ताने कस सकते हैं। मां-बाप व्यवहार करते समय बेटा तथा बेटी को एक समान समझें।
– घर में अगर बेटी बड़ी होगी तो उसे छोटे बहन-भाइयों की पढ़ाई तथा देखभाल की जिम्मेदारी दी जाती है। अगर बेटा बड़ा होगा तो उस पर कभी भी कोई इस प्रकार का बोझ नहीं डाला जाता। अभिभावकों को चाहिए कि बेटी अगर बड़ी हो तो जिम्मेदारियों का बोझ उस पर ज्यादा न डालें । उसे अपनी आजादी लेने दें क्योंकि इसी आजादी को याद करके वह ससुराल में जीवन भर रिश्तों के बन्धन में बंध कर भी खुश रहती है। अगर बेटा बड़ा हो तो उस पर छोटे बहन-भाइयों की थोड़ी-थोड़ी जिम्मेदारी डालें ताकि वह आजादी में भी अपनी हदों को पहचाने।
– घरों में नए गैजेट जैसे मोबाइल, कम्प्यूटर, लैपटॉप, गाड़ी आदि पहले बेटों को लेकर दिए जाते हैं, बाद में बेटी को मिलते हं।
मां-बाप बच्चों को उनकी जरूरत के अनुसार गैजेट लेकर दें। इसमें पहले बेटा, फिर बेटी का सवाल ही उत्पन्न नहीं होना चाहिए।
– कुछ घरों में बेटियों के रिश्ते किशोरावस्था में ही देखने शुरू कर दिए जाते हैं। उनकी सोच के मुताबिक बेटी एक बोझ है, जितनी जल्दी दूसरे घर चली जाए अच्छा है। वह बेटी को भी यही शिक्षा देते हैं, ‘‘तुम्हारी जिन्दगी का असल मकसद शादी है।’’ मां-बाप बेटी को इतना समय भी नहीं देते कि वह भविष्य की प्लानिंग कर सके तथा शादी के लिए शारीरिक तथा दिमागी तौर पर तैयार हो सके। जो मां-बाप ऐसा सोचते हैं वे गलत हैं। ऐसे घरों से ही दहेज की मांग की जाती है। ऐसी बेटियां ससुराल पक्ष में अपनी अपरिपक्वता की वजह से घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं, जल्दी तलाक होते हैं तथा छोटी उम्र में मृत्यु की शिकार भी हो जाती हैं। बेटियों को बेटों के समान पढऩे का समय तथा आजादी मिलनी चाहिए।
– कुछ घरों में माताएं अपनी ऊर्जा बचाने के लिए बेटियों को बचपन से ही घर के काम पर लगा देती हैं। उनका यह कहना है कि लड़कियों को पढ़ाई के बावजूद घर का काम आना चाहिए। घर का काम सीखने के लिए एक मैच्योर लड़की को छ: महीने या एक साल से ज्यादा समय नहीं चाहिए। बचपन या किशोरावस्था से ही काम पर लगाने का मतलब है उसका बचपन छीन लेना। वह दूसरे बच्चों से पढ़ाई में पीछे रह जाएगी और अपने सपने पूरे नहीं कर पाएगी।
– कई घरों में जब लड़की कमाने लगती है तो अभिभावक उससे बिना पूछे उसकी पूरी तनख्वाह ऐंठ लेते हैं। बेटी को भी फैसला लेने दें। अगर घर में पैसे की बहुत कमी है तो वह खुद ही कुछ हिस्सा रख कर आपको बाकी की तनख्वाह दे देगी या फिर घर के खर्चे खुद करना पसंद करेगी। जो भी कमाता तथा मेहनत करता है, सबसे पहले उसकी कमाई पर उसी का हक होना चाहिए। बेटी को फैसला लेने दें कि वह क्या करना चाहती है।
– घर में माता-पिता जो भी पैसा-जायदाद इकट्ठी करते हैं उसमें कभी भी बेटी को हिस्सेदार नहीं समझा जाता। सब बेटे का ही माना जाता है। आजकल तो मां-बाप जीते जी वसीयत में लिख देते हैं, ‘‘हमारे मरने के पश्चात सारी चल-अचल सम्पत्ति हमारे बेटे को मिले।’’
बेटी को दिए दहेज को उसका हिस्सा बता कर पल्ला झाड़ लेते हैं जो सारी सम्पत्ति का तीन-चार प्रतिशत भी नहीं होता।
लड़की के मां-बाप बेटे की शादी पर भी तो भारी-भरकम खर्चा करते हैं, फिर बेटी की शादी पर खर्चे गए धन को उसकी जायदाद का हिस्सा कह कर बात को टाल देना दूसरों को धोखा देने वाली बात है।
विधवा या तलाकशुदा होने पर उसे अपने लिए खुद घर बनाना पड़ता है, नहीं तो दूसरी शादी का आश्रय लेना पड़ता है। मां-बाप को चाहिए कि वे बेटियों को जायदाद में से बराबर का हिस्सा दें । उसे दर-दर की ठोकरें खाने या समझौते करने पर मजबूर न करें।