BUDAUN SHIKHAR

बदायूँ

जिंदगी के वास्ते

वातावरण खुशनुमा था। प्रत्येक व्यक्ति रोजमर्रा की तरह कर्मयोग में संलग्न था।बच्चों के विद्यालय जाने वाली बसों का हॉर्न माता पिता में त्वरिता उत्पन्न कर रहा था। घर के बड़े-बुजुर्गों के द्वारा चाय पीते हुए अखबार की खबरों पर चर्चा चल रही थी। उस समय महामारी का विशाक्त वैश्विक परिदृश्यों में देखा जा सकता था, जिसको उत्पन्न करने में ड्रैगन नामक देश ने प्राथमिक भूमिका निभाई ।

वुहान से प्रसारित दुर्गन्ध से हवाये काल बन गईं । इस बात से बेख़बर स्वदेशी अपने ही राजनीतिक पगडंडियों में उलझे थे और लोग सामान्य जीवन जीने में लगे हुए थे।

हालात तब बिगड़ने शुरू हुए , जब भारत माता के पुत्रों को इस विषैली हवा ने अपनी गोद में सुलाना शुरू कर दिया । नेतृत्व-कर्ताओं ने मामले की गंभीरता के कारण सम्पूर्ण देश मे लॉकडाउन कर बीमारी के प्रति अपना रुझान तय किया।

फैक्ट्रीयां , कारखाने, कम्पनी और व्यापार को पूर्णतः बन्द करना पड़ा। जिंदगी मानो थम सी गई थी , समय निरंतर अपनी पूर्वकालिक गति के साथ चला जा रहा था । मजदूरों, दिहाड़ी मजदूरों, असंगठित क्षेत्र से जुड़े कार्य-श्रमिकों , दैनिक वेतन भोगियों और तमाम श्रमिकों को अस्थाई रूप से बेरोजगारी का दंश झेलना पड़ा।

शहर में रहना दूभर हो गया। परिवार के खर्चे का बोझ मन- मस्तिष्क में गहराता गया । जिन्दगी जीने के लिये प्रवासी मजदूरों द्वारा पलायन वादी प्रवत्ति को अपनाने के अलावा अन्य किसी मार्ग का चयन कर पाना मुश्किल होता जा रहा था।

राज्यों की सीमाओं के बन्द और यातायात के पूर्णतः ठप्प होने से निम्न वर्गो के सामने चौतरफा विपत्ति की मार पड़ी। लोगों ने अपने गाँव पहुँचने के लिए सैकड़ो किलोमीटर दूर तक पैदल चलने का कार्यक्रम तय किया। रास्ता कठिन था, मुश्किलों का अंबार था परन्तु परिवार की रोशनी को बुझाना भी नहीं था। चहलकदमी शुरू की तो कारवाँ बनता गया । एक व्यक्ति की शक्ल दूसरे की हिम्मत का काम कर रही थी ।

भूक , प्यास से बेहाल राहगीरों का यात्रा करना बदहवास होता जा रहा था । छोटे-छोटे बच्चो को गर्म और ठंडी सड़को पर चलते देखना मन में अनपेक्षित कसक पैदा कर रहा था। माता के आँचल से बच्चो के सिरों को बार-बार ढंकना मातृत्व भावना को प्रदर्शित कर रहा था। यह दृश्य मानो अदिमयुग की याद दिलाता है, जब यात्रा बहादुरों का कार्य माना जाती थी।

मानवता शर्मसार ना हो, इसलिए तमाम गैर सरकारी संगठनों , स्वयं सहायता समूहों , सरकार द्वारा और दानवीरों के द्वारा खाद्य रसद सामग्री का इंतजाम किया गया। केंद्र और राज्य सरकार के द्वारा सहायता पहुँचाकर अपने पित्रधर्म का पालन किया गया। तत्क्षण मिलने वाली मदद का सरोकार समस्त जनता के द्वारा किया गया।

इस समय ने लोगों को संदेश दिया कि प्रत्येक जीवन महत्वपूर्ण है, यदि हम उच्च-निम्न , अमीर-गरीब और सुन्दर- कुरूप के बीच फँसकर जीवन यापन करते हैं तब शायद ईश्प्रदत्त खूबसूरत जीवन को भूल जाएँगे और पार्श्विक प्रवत्ति रूपी अँधेरे में जीवन जीने को मजबूर हो जायेंगे । जिसकी कल्पना करना भी भयभीत कर देता है। उन मजदूरों की यात्रा ने इस तथ्य को पूर्णतः इंगित कर दिया की जीवन जीने की आकांक्षा प्रत्येक स्तर पर है और इसमें बाधा पहुँचाना ईश्वरीय कृत्य में अड़चन लगाने जैसा है। यह हवा तो एक दिन शुद्ध हो जायेगी , लेकिन इसके कारण काल में समाय लोंगो की भरपाई कैसे हो पायेगी।

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