नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि मध्यस्थता का फैसला तभी रद्द किया जा सकता है जब यह भारत की सार्वजनिक नीति के विरुद्ध हो।

न्यायमूर्ति एम आर शाह और न्यायमूर्ति बी वी नागरत्न की पीठ ने कहा कि अगर यह भारतीय कानून की मूल नीति, देश के हित, न्याय या नैतिकता के विपरीत पाया जाता है या यह पूरी तरह से अवैध हो, तो मध्यस्थता अधिनियम के तहत निर्णय रद्द किया जा सकता है।

शीर्ष अदालत पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के एक आदेश के खिलाफ हरियाणा पर्यटन लिमिटेड की एक अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें मध्यस्थ द्वारा 2005 में पारित एक फैसले के साथ-साथ अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, चंडीगढ़ का आदेश भी रद्द कर दिया था।

हरियाणा पर्यटन लिमिटेड (एचटीएल) ने अपने पर्यटक परिसरों में वातित शीतल पेय की आपूर्ति के लिए निविदाएं आमंत्रित की थीं और कंधारी बेवरेजेज द्वारा प्रस्तुत निविदा को स्वीकार कर लिया गया था।

एचटीएल ने बाद में पक्षों के बीच विवाद पैदा होने पर यह अनुबंध समाप्त कर दिया था। यह मामला एकल मध्यस्थ को भेजा गया था।

मध्यस्थ ने कंधारी बेवरेजेज को 9.5 लाख रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया और उसके 13.92 लाख रुपये के दावे से संबंधित प्रतिवाद को खारिज कर दिया।

अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने अपील/आपत्ति याचिका को खारिज कर दिया था जिसके बाद इसने मध्यस्थता अधिनियम की धारा 37 के तहत उच्च न्यायालय के समक्ष आगे अपील दायर की।

उच्च न्यायालय ने उक्त अपील को स्वीकार कर लिया और मध्यस्थ के निर्णय के साथ-साथ अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, चंडीगढ़ का आदेश भी रद्द कर दिया था।

शीर्ष अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय ने अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया है जो कि मध्यस्थता अधिनियम की धारा 37 में निहित नहीं है।

इसने कहा, “उपरोक्त को ध्यान में रखते हुए और ऊपर बताए गए कारणों से, वर्तमान अपील सफल होती है।”

पीठ ने 11 जनवरी के आदेश में कहा, “उच्च न्यायालय द्वारा पारित संबंधित निर्णय और आदेश को एतद्द्वारा रद्द एवं दरकिनार किया जाता है। मध्यस्थ का निर्णय और अतिरिक्त जिला न्यायाधीश का मध्यस्थता अधिनियम की धारा 34 के तहत पारित आदेश बहाल किया जाता है।”

 

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