निर्मला सीतारमण, वित्त मंत्री, भारत सरकार*
इस वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था को मुक्त करने, यानी खुला बाजार अपनाने के 30 साल पूरे हो रहे हैं। जैसा कि कुछ लोग तर्क देंगे, यह पूंजी और बैंक की मजबूरी के कारण शुरू हुआ, जिसमें भुगतान संकट डरावने रूप में दिख रहा था। तब तक हमारी अर्थव्यवस्था कमोबेश लाइसेंस- कोटा और नियंत्रण संबंधी नियमों में बंधी हुई थी, जिसमें उद्यम के लिए कोई जगह नहीं थी। साल 1991 में उदारीकरण के साथ घुटन भरी इस अर्थव्यवस्था ने ताजा हवा महसूस की। हम इसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव और वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की राजनीतिक इच्छाशक्ति को याद करते हैं कि उन्होंने अर्थव्यवस्था को उबारा। मगर यदि हम उस नेतृत्व की प्रशंसा करते हैं, तो हमें उनकी इस बात के लिए आलोचना भी करनी चाहिए कि वित्त मंत्री से प्रधानमंत्री बनने वाले उस शख्स ने पूरा एक दशक गंवा दिया और सुधार की रफ्तार को कायम रखने में वह नाकाम रहे। यह राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रतिबद्धता की कमी का मामला था।
उस विफल दशक से ठीक पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई थी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की योजना बनाने में अपनी प्रतिबद्धता जताई। हालांकि, 2004 से 2014 के बीच यह साकार नहीं हो सका। नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में ही जीएसटी और दिवाला व दिवालियापन संहिता (आईबीसी) को लागू किया। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में एनडीए ने अर्थव्यवस्था को नियंत्रण मुक्त करने की अपनी प्रतिबद्धता भी दोहराई। इसे ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ में शामिल किया गया। हमारे पथ-प्रदर्शक दर्शन ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ का मतलब ही यह था कि किसी आधार पर कोई तुष्टीकरण नहीं किया जाएगा।
‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ के तहत संरचनात्मक सुधार और सुगम कामकाज पर ध्यान दिया जा रहा है। विनिवेश, विनियमन और मुद्रीकरण समान रूप से हो रहे हैं, क्योंकि पुराने बोझिल कानूनों को खत्म किया जा रहा है व प्रौद्योगिकी को अपनाकर अधिकाधिक पारदर्शिता बरती जा रही है। दरअसल, पुराने कानून बेईमान नियामकों के मुफीद थे। लिहाजा, प्रधानमंत्री ने अपने पहले कार्यकाल में ऐसे 1,200 कानूनों व दूसरी पारी में 58 कानूनों को खत्म किया। इसी तरह, 6,000 से अधिक ऐसे दिशा-निर्देश केंद्र और राज्यों के तमाम विभागों में कायम थे, जो आम आदमी के दैनिक जीवन को प्रभावित कर रहे थे। राज्यों के साथ मिलकर हमने तय किया है कि अगस्त, 2022 तक, यानी आजादी की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर नागरिकों को इन नियम-कानूनों से भी आजादी मिल जाएगी।
‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ का उद्देश्य है, बिना किसी भेदभाव के सभी का समग्र विकास। यह जन-कल्याण के नाम पर पूर्व में किए गए प्रयासों की चूक और पक्षपात को दूर करता है। पूर्व की सरकार का ‘गरीबी हटाओ’ का आह्वान इसलिए परवान नहीं चढ़ सका, क्योंकि यह लोगों के आकांक्षापूर्ण विकास के लिए जरूरी पारिस्थितिकी तंत्र नहीं बना पाया। यह पारिस्थितिकी तंत्र कितना कारगर होता है, इसका एक स्पष्ट उदाहरण वित्तीय समावेशन के लिए जन-धन खातों, आधार और मोबाइल नंबर का एकीकरण, यानी जेएएम है। प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) के साथ यह एकीकरण कोविड-19 महामारी में खूब प्रभावी साबित हुआ है। इसका जिक्र इसलिए उल्लेखनीय है, क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जब अपने देश के गरीबों तक पहुंचने के लिए संघर्ष कर रही थीं, तब भारत में सिर्फ एक बटन क्लिक करके ही हम वंचितों तक बार-बार सहायता पहुंचाने में सफल रहे।
सिर्फ जेएएम नहीं, बिना किसी भेदभाव से क्रियान्वित कई अन्य उपायों ने भी देश में गरीबों को राहत दी। प्रत्येक जरूरतमंद परिवार को बिजली (उजाला), शौचालय (स्वच्छता) और रसोई गैस (उज्ज्वला) मिली। लोगों को कैशलेस स्वास्थ्य देखभाल (आयुष्मान) और जीवन व दुर्घटना बीमा (जीवन ज्योति, सुरक्षा बीमा) दिया जा रहा है। जिन छोटे कारोबारियों के पास गारंटी में देने के लिए कुछ नहीं था, उनको भी मुद्रा लोन (50 हजार से 10 लाख रुपये तक) मिल रहा है। महामारी के दौरान स्वनिधि योजना शुरू की गई, जिसमें रेहड़ी-पटरी वालों को 10 हजार रुपये का लोन मुहैया कराया जा रहा है। इन तमाम योजनाओं की विशेषता इसके क्रियान्वयन में है। जब तक किसी ने लाभ लेने से इनकार नहीं किया, तब तक प्रत्येक पात्र नागरिकों ने इनका लाभ उठाया।
विकास के लिए अहम है- उत्पादन के लिए जरूरी संसाधनों की खरीद-फरोख्त, यानी फैक्टर मार्केट में सुधार। तीनों कृषि कानून व्यापक विचार-विमर्श के बाद तैयार किए गए, 44 श्रम कानूनों को चार संहिताओं में समेटकर सरल बनाया गया है। महामारी ने चुनौती जरूर पेश की, लेकिन उस दृढ़ विश्वास को वह कमजोर न कर सकी, जिसके साथ देश को आगे बढ़ना है। भारत में संरचनात्मक बदलाव की दरकार है। महामारी के दौरान, हमने जरूरतमंदों को राहत व सहायता पर अपना ध्यान जरूर लगाया, पर उन अवसरों को बेजा नहीं जाने दिया, जो वक्त के हिसाब से सुधार के लिए जरूरी थे। स्वास्थ्य क्षेत्र और उसके नियमों में सुधार हो रहा है। निजी क्षेत्र को दक्ष बनाकर और पर्यावरणीय लक्ष्यों को हासिल करके बिजली क्षेत्र को संवारा जा रहा है। डिजिटल तकनीक के माध्यम से ‘एक राष्ट्र-एक राशन कार्ड’ का महत्व तो हम सबने देखा ही है। महामारी के दौरान राज्यों के सहयोग से व्यवस्थागत सुधार भी किए गए। यह सब इसलिए संभव हुआ, क्योंकि राज्यों को हर बड़ी उपलब्धि हासिल होने पर बतौर प्रोत्साहन उनके लिए क्रेडिट बढ़ाई गई। प्रधानमंत्री ने लिंक्डइन पर ‘रिफॉम्र्स बाय कन्विक्शन ऐंड इंसेंटिव्स’ शीर्षक से लिखी अपनी पोस्ट में ऐसे ही कुछ सुधारों का जिक्र किया है। महामारी के बीच, इस अभूतपूर्व स्थिति से देश की अर्थव्यवस्था को मुश्किलों से उबारने के लिए तैयार 2021 के बजट ने बुनियादी ढांचे पर खर्च बढ़ाने पर जोर दिया। यह सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के लिए नीतियां भी निर्देशित करता है और वित्तीय क्षेत्र में सुधार के लिए रोडमैप भी तैयार करता है। बैंकों को पेशेवर बनाने की प्रक्रिया चल रही है। तकनीक का इस्तेमाल करके टैक्स एडमिनिस्ट्रेशन को फेसलेस बनाया जा रहा है, यानी ऐसी जड़ता खत्म की जा रही है, जिनसे करदाताओं का उत्पीड़़न किया जाता था। सार्वजनिक संपत्तियों से राजस्व के नए स्रोत तलाशने की शृंखला तैयार है। साफ है, 1991 के सुधार 20वीं सदी की गाथा थे। आज जो सुधार किए जा रहे हैं, वे 21वीं सदी के नए भारत के लिए हैं।
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