हरिप्रसाद चौरसिया
स्वर और लता को एक साथ पैदा किया भगवान ने स्वर और लता का जो मिलाप था, जो जोड़ी थी, मैंने अपने जीवन में ऐसा और दूसरा कोई उदाहरण न कभी देखा और न ही सुना कितने साल से उन्होंने गाना बंद कर रखा था लेकिन इतने सालों में कोई ऐसा नहीं दिखाई पड़ा जो उनके करीब भी हो। ये कुछ अलग बात है, उनका नाम, उनका गुण, उनका परिवार, सब अलग ही चीज हैं बिल्कुल उम्र तो सबकी होती है और सबको एक दिन जाना पड़ता है लेकिन ऐसा लगता है कि भगवान ने लता जी के लिए कुछ खास इंतजाम कर रखा था। आखिर उन्होंने भगवान की सेवा गले से, अपने सुरों से उन्होंने भगवान को पूरी दुनिया में लोगों के बीच किस प्रकार पहुंचाया है। इतने वर्षों से न गाकर भी उनकी उपस्थिति लगातार हमारे बीच बनी रही और हमेशा बनी रहेगी। यही कह सकता हूं, शायद ईश्वर को अब उनकी जरूरत महसूस हो। रही हो, लेकिन जाकर भी वह कभी नहीं जाएंगी, हमेशा लोगों के, सबके दिलों में बसी रहेंगी।
मेरा और लता जी का पारिवारिक संबंध था, बहुत निकट का संबंध था। वह पेडर रोड पर रहती थीं और में खार में रहता था। वह जब भी आती और गोलगप्पे वाला आता तो खाने नीच चली जाती खाने की बहुत शौकीन थी और ऐसा नहीं था कि गायिका है, तो गोलगप्पे जैसी चीजों से परहेज करती हो। जो भी पसंद था, वह खाती थीं में ऊपर से देखता तो चिल्लाता था कि क्या मुझे नहीं खिलाएंगी? फिर वह ऊपर आ जाती और वहीं गोलगप्पे मंगवाती थी.
हम साथ बैठकर खाते थे। कह सकता हूं कि हमने मतलब मैंने और पंडित शिवकुमार शर्मा ने, शिव-हरि के रूप में, जिन भी फिल्मों में संगीत दिया, उनमें ज्यादातर के सभी प्रमुख गाने | लता जी ने ही गाए और वे सभी खूब लोकप्रिय हुए। उन्होंने हमारे संगीत निर्देशन में ‘सिलसिला’, ‘फासले’, ‘विजय’, ‘चांदनी’, ‘लम्हे’, ‘डर’ फिल्मों के लिए गीत गाए। ‘देखा एक ख्वाब’, ‘नीला आसमान’, ‘मेरे हाथों में, “चूड़ियां खनक गई, तू मेरे सामने’, ‘दरवाजा बंद कर लो जैसे गाने लोगों ने खूब पसंद किए। लता जी हमारे संगीतबद्ध गीतों को गाती थीं तो ऐसा लगता था कि हमने जैसा सोचा था, वह तो उससे भी बहुत अच्छा गा रही हैं। वह गाने का ऐसा था कि अगर वह इसे न गा रही होतीं तो क्या होता? लता जी गीतों को बहुत समझ कर गाती थीं। लता जी की जो समझ थी, जो उनकी भाषा थी गायन के प्रति, वह अलग थी, भिन्न थीं, इसलिए वह दुनिया में इतना नाम कर गई।
मीराबाई का एक भजन है जो तीन बार फिल्म संगीत में आया। पुराने लोगों ने उसे संगीतबद्ध किया और हमसे भी कहा गया। एक बार वसंत देसाई ने संगीतबद्ध किया, एक बार पंडित रविशंकर ने किया और फिर हम लोगों ने किया वह था “जो तुम तोड़ो पिया में नाही तोडू रे जब हमने इसे फिल्म ‘सिलसिला’ के लिए संगीतबद्ध किया और लता जो ने हमारी धुन को गाने के लिए सुना तो उन्हें इतना मजा आया कि बोली, ‘आप अलग थे, अलग है और अलग रहेंगे। लेकिन लता जी जैसा अलग शायद कोई दूसरा नहीं होगा।