नई दिल्ली, एजेंसी : सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि यह ‘चौंकाने वाला, परेशान करने वाला, भयानक और आश्चर्यजनक’ स्थिति है कि सूचना एवं प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा-66 ए का इस्तेमाल अभी भी नागरिकों के खिलाफ आपत्तिजनक ऑनलाइन पोस्ट के लिए किया जा रहा है, जबकि वर्ष 2015 में श्रेया सिंघल मामले में इस धारा को निरस्त कर दिया गया था।

जस्टिस आरएफ नरीमन की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने इस प्रावधान के दुरुपयोग को उजागर करने वाले पीयूसीएल नामक गैर सरकारी संगठन द्वारा (एनजीओ) के आवेदन पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है।

एनजीओ की ओर से पेश वरिष्ठ वकील संजय पारिख ने कहा कि 11 राज्यों में जिला न्यायालयों के समक्ष एक हजार से अधिक मामले अभी भी लंबित और सक्रिय हैं, जिनमें आरोपी व्यक्तियों पर सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा-66 ए के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत के निर्देश का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए कोई तरीका होना चाहिए। लोग पीड़ित हैं। इसके जवाब में पीठ ने कहा, ‘हम इस पर कुछ करेंगे।’

केंद्र ने रखा अपना पक्ष, कहा- बेयर एक्ट में मौजूद

अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि भले ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रावधान को रद्द कर दिया गया हो, लेकिन अभी भी बेयर एक्ट में मौजूद है। केवल फुटनोट में उल्लेख किया गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने धारा-66ए को हटा दिया गया है। हालांकि पीठ ने कहा कि यह आश्चर्यजनक है। जो हो रहा है वह काफी भयानक, चिंताजनक और चौंकाने वाला है। पीठ ने केंद्र सरकार को जवाब दाखिल करने का आदेश देते हुए दो हफ्ते बाद मामले पर विचार करने का निर्णय लिया है।

शीर्ष अदालत ने 24 मार्च 2015 को कहा था कि धारा-66ए पूरी तरह से अनुच्छेद 19(1)(ए) (बोलने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) का उल्लंघन है। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा-66 ए के तहत आपत्तिजनक टिप्पणियों को ऑनलाइन पोस्ट करने वालों के लिए तीन वर्ष की जेल की सजा का प्रावधान था।

 

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