बांबे हाई कोर्ट का फैसला अपराधियों के हौसले बुलंद करने वाला था। उस पर रोक लगाकर सुप्रीम कोर्ट ने सही किया है। नहीं तो मासूम बच्चियां और महिलाएं भी इस तरफ के मामलों को चुपचाप सहती रहतीं जिससे अपराध और अधिक तेजी से बढ़ने लगता।

नई दिल्ली, एजेंसी। सुप्रीम कोर्ट ने बांबे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच के ‘नो स्किन टच, नो सेक्सुअल असॉल्ट’ फैसले पर रोक लगा दी है, जिसको लेकर पूरे देश में बहस हो रही थी। जस्टिस पुष्पा वीरेंद्र गनेडीवाला ने अपने फैसले में कहा था कि स्किन से स्किन का टच हुए बिना नाबालिग पीड़िता को छूना यौन अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। यह पॉक्सो एक्ट के तहत यौन उत्पीड़न नहीं है। उसके बाद सेशन कोर्ट से तीन साल की सजा पाए शख्स को बरी कर जेल से रिहा करने का आदेश दे दिया गया था। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला स्वागतयोग्य है, क्योंकि देश की किसी भी अदालत का फैसला इस तरह के दूसरे मामलों में मिसाल के तौर पर पेश किया जाता है। छेड़छाड़ के मामलों में हाई कोर्ट का फैसला आरोपियों के हौसले को बुलंद करने के साथ उन्हें स्किन टच न होने का हवाला देकर बचने का सबसे बड़ा मार्ग बन सकता था। मासूम बच्चियां और महिलाएं भी इस तरफ के मामलों को चुपचाप सहती रहतीं, जिससे अपराध और अधिक तेजी से बढ़ने लगते।

सरकार ने वर्ष 2012 में बच्चों को छेड़खानी और दुष्कर्म जैसे मामलों से सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक विशेष कानून पॉक्सो एक्ट (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल अफेंसेस एक्ट) बनाया था। इसके बावजूद बच्चियों के साथ र्दुव्‍यवहार और दुष्कर्म की घटनाओं में कोई खासा कमी देखने को नहीं मिली है। वर्ष 2012 में निर्भया कांड के बाद जस्टिस वर्मा समिति ने सुझाव दिए थे कि महिलाओं के खिलाफ अपराध से जुड़े कानूनों के तहत मौजूदा सजा को और सख्त किए जाने की आवश्यकता है। समिति ने सिफारिश की थी कि किसी व्यक्ति को जानबूझकर छूना और जिसे छुआ जा रहा है, वह उसकी सहमति के विरुद्ध हो तो कानून में उसे यौन हिंसा माना जाना चाहिए। किसी लड़की का पीछा करना, उसे घूरना और मानव तस्करी सहित कई नए तरह के आपराधिक कृत्यों को लेकर सजा तय की गई। इसके अलावा किसी महिला को निर्वस्त्र करने के इरादे से उस पर हमला करने की स्थिति में तीन से सात साल की सजा का प्रस्ताव समिति ने किया। पॉक्सो एक्ट इन सिफारिशों के बाद ही मजबूत बना था।

कम उम्र में जबरदस्ती यौन संबंधों का असर किशोरियों पर उम्र भर रहता है। इससे उनका न केवल शारीरिक विकास रुकता है, बल्कि मानसिक विकास भी प्रभावित होता है। उनके सोचने-समझने का तरीका और समाज को देखने का नजरिया बदल जाता है। जजों को अपना फैसला सुनाते हुए इन सभी बातों का ध्यान रखना चाहिए था। हाई कोर्ट का फैसला आने के बाद अभिभावकों को अपनी बच्चियों को लेकर यह डर सताने लगा था कि उनकी सुरक्षा के लिए वे कहां जाएं और क्या कदम उठाएं? लेकिन सर्वोच्च अदालत ने हाई कोर्ट के आदेश को रोककर उनके चेहरे पर मुस्कान ला दी है।

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